Kabhi na socha tha hamne “Qateel” us ke liye,
Karega ham pe sitam wo bhi har kisi ki tarah.
Yaaro ye daur jauf-e-basaarat ka daur hai
Aandhi uthe to usko ghata kah liya karo
Wada phir wada hai main zahar bhi pee jaaun “Qateel”,
Shart ye hai koi baahon mein sambhale mujhko.
Shama jis aag se jalti hai numaaish ke liye,
Ham usi aag mein gum-naam se jal jaate hain.
Main ghar se teri tamnna pehan ke jab Nikalun,
Barhana shehar mein koi nazar na aayr mujhe.
Kya maslahat-shanaas tha wo aadami Qateel,
Majbooriyon ka jisne wafa naam rakh diya.
Khud ko main baant na daalun kahin daaman-daaman,
Kar diya tune agar mere hawaale mujhko.
Ik-ik pathar jod ke maine jo deewar banaai hai,
Jhankhu us ke peeche to ruswaai hi ruswaai hai.
Acha yakeen nahin hai to kashti duba ke dekh,
Ik tu hi nakhuda nahin jaalim khuda bhi hai.
Yun taslli de rahe hain ham dil-e-beemar ko,
Jis tarah thaame koi girti hui deewar ko.
अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ,
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ।
कोई आंसू तेरे दामन पर गिराकर,
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ।
थक गया में करते-करते याद तुझको,
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ।
छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा,
रौशनी दो घर जलाना चाहता हूँ।
आखिरी हिचकी तेरे जानों पा आये,
मौत भी में शायराना चाहता हूँ।
Mujh se tu poochhane aayaa hai wafa ke maani,
Ye tiri saada-dili maar na daale mujh ko.
अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की
तुम क्या समझो, तुम क्या जानो बात मेरी तनहाई की
कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में
मैंने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की
वस्ल की रात न जाने क्यूँ इसरार था उनको जाने पर
वक़्त से पहले डूब गए तारों ने बड़ी दानाई की
उड़ते उड़ते आस का पंछी दूर उफक में डूब गया
रोते रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की
Garmi-e-hasrat-e-naakaam se jal jaate hain,
Ham charaagon ki tarah shaam se jal jaate hain.
प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं
बेस्र्ख़ी इस से बड़ी और भला क्या होगी
एक मु त से हमें उस ने सताया भी नहीं
रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं
सुन लिया कैसे ख़ुदा जाने ज़माने भर ने
वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं
तुम तो शायर हो ‘क़तील’ और वो इक आम सा शख्स़
उस ने चाहा भी तुझे और जताया भी नहीं
Ab jis ke jee mein aaye wahi paaye raushani,
Ham ne to dil jala ke sar-e-aam rakh diya.
जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग
एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग
मिल भी लेते हैं गले से अपने मतलब के लिए
आ पड़े मुश्किल तो नज़रें भी चुरा लेते हैं लोग
है बजा उनकी शिकायत लेकिन इसका क्या इलाज
बिजलियाँ खुद अपने गुलशन पर गिरा लेते हैं लोग
हो खुशी भी उनको हासिल ये ज़रूरी तो नहीं
गम छुपाने के लिए भी मुस्कुरा लेते हैं लोग
ये भी देखा है कि जब आ जाये गैरत का मुकाम
अपनी सूली अपने काँधे पर उठा लेते हैं लोग
Gar de gaya hamein toofan bhi “Qateel”
Saahil pe kashtiyon ko dooboya karenge ham.